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शनिवार, 14 नवंबर 2020

।।हमारी संस्कृति हमारी पहचान।।KUPVI में तीन दिन मनाई जाने वाले दिवाली का महत्व और खासियत। KUPVI के साथ-साथ समस्त निर्वाचन क्षेत्र चौपाल को सांस्कृतिक पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने के लिए उठाये जाये प्रयाप्त कदम।


By: Lokinder Singh Chauhan

भारत त्योहारो का देश है।हमारे देश की सभ्यता, धर्म और सांस्कृतिक विभिधता के कारण विभिन्न प्रकार के त्यौहार यहाँ मनाये जाते है और साल भर त्योहारो का दौर चला रहता है। ऐसा ही एक त्यौहार है दिवाली, इसे आप हिन्दुओ का सबसे बड़ा धार्मिक त्यौहार भी कह सकते है। हमारे देश में सभी धर्मो के लोग एक दूसरे के त्यौहार मिलझुलकर मनाते है। इसलिए दिवाली का भी सभी धर्मो के लोगो को बेसब्री से इंतज़ार रहता है।

हम सभी जानते है हमारा देश विभिधताओ का देश है। यहाँ कदम कदम पर भाषाए, रीतिरिवाज और त्योहारो को मनाने के ढंग बदलते रहते है। तो दिवाली मनाने के रीति-रिवाज भला कैसे एक से हो सकते है??

आज मैं आपको दिवाली मनाने के ऐसे ही अलग मगर दिलचस्प रीति-रिवाज से रूबरू करवाऊँगा। हिमाचल प्रदेश के जिला शिमला के उपमंडल चौपाल की छोटी सी तहसील कुपवी में दिवाली बड़े धूम-धाम से मनाई जाती है और यहाँ दिवाली का उत्सव तीन दिन तक चलता है। इन तीन दिनों को क्षेत्र के लोग आखिर कैसे मनाते है?? यह जानने से पहले आपको ये समझना जरुरी है कि आखिर इस प्रकार से हमारे यहाँ दिवाली मनाई क्यों जाती है? और इस परम्परा को संजोये रखने के साथ साथ इसे ओर बेहतर बनाने और बढ़ावा देने के क्या फायदे हो सकते है?

                         

    

कुपवी की दिवाली धार्मिक महत्व के साथ साथ सांस्कृतिक महत्व भी रखती है। कोई भी त्यौहार अपने मूल उद्देश्य के अलावा इसलिए भी मनाये जाते है ताकि लोग एक दूसरे से त्योहारो के बहाने मिलझुल सके और आपसी सोहार्द और भाईचारा लोगो में बना रहे। इसके अलावा अपने दैनिक जीवन के कार्यो से मिलने वाले तनावों को दूर करने के लिए भी इस प्रकार के आयोजन संजीवनी का कार्य करते है। ठीक ऐसा ही कारण दिवाली के इस प्रकार मनाये जाने के पीछे भी है जिसे आपको जानना और समझना चाहिए। कुपवी में लोगो का प्रमुख व्यवसाय कृषि है। सितम्बर-अक्टूबर माह में खरीफ की फसल काटने, रबी की फसल बीजने और सर्दियो के लिए घास काटने तक के सभी काम लोग दिन-रात एक करके निपटाते है, जिसके कारण लोग काफी थका हुआ भी महसूस करते है और कई बार तनाव में भी इस वजह से जाते है। ऐसे समय में दिवालीे का त्यौहार लोगो को  अपने सगे-संबंधियो से लम्बे समय बाद मिलने का एक मौका लेकार आता है। दिवाली पर लोग अपनों के साथ कुछ समय बिता कर अपनी थकान और तनाव भुला देते है और पुनः हर्षोउल्लास और ऊर्जा से भर जाते है।इसके इल्लावा जो लोग पढ़ाई या रोजगार के लिए क्षेत्र से बाहर जाते है उन्हें भी अपनों से एक साथ मिलने का मौका दिवाली पर मिलता है।

इन्ही कुछ कारणो की वजह से हमे इस सांस्कृतिक धरोहर को संजोये रखने की जरूरत है। और ये कार्य कोई बाहर का व्यक्ति नहीं करेगा ये बीडा हमे ही उठाना होगा। दूसरा ये कि हमे अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संजोये रखने और उसे बढ़ावा देने को पर्यटन के नजरिये से भी जोड़कर देखना चाहिए। कुपवी, पावन शिरगुल धाम चूड़धार की गोद में बसा है और यहाँ  की प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है। उसके ऊपर यहाँ अभी तक जीवित पहाड़ी संस्कृति इस क्षेत्र को शोभायमान करती है। प्रदेश में विख्यात धार्मिक महत्व वाले त्यौहार जैसे कुल्लू का दशहरा, मंडी की शिवरात्रि इत्यादि भी किसी जमाने में बाहरी लोगो के लिए अनजान रहे होंगे। लेकिन आज, इन त्योहारो की वजह से यहाँ देश विदेश से पर्यटक आते है। अब सवाल ये उठता है कि क्या हमारे क्षेत्र में मनाये जाने वाले सांस्कृतिक त्यौहार भी इस तरह की ख्याति हासिल कर सकते है?? ऐसा बिल्कुल संभव है। समय जरूर लगेगा लेकिन ये असंभव नहीं है। इसके लिए हमे मिलकर बहुत मेहनत करने की जरूरत है। और हमे अपने आपको और अपने क्षेत्र को इस काबिल बनाना होगा कि यहाँ आने वाले लोगो को किसी प्रकार की असुविधाओं का सामना न करना पड़े। हमे अपने क्षेत्र में बुनियादी ढांचे के साथ साथ मूलभूत सुविधाये जैसे बिजली, स्वास्थ्य, पानी इत्यादि के लिए मिलकर निरंतर प्रयासरत रहना होगा। ताकि यहाँ के लोगो के साथ साथ बाहर से आने वाले लोगो को बेहतर सुविधाये हम दिलवा सके। इसलिए समस्त क्षेत्रवासियों से ये विनम्र निवेदन है कि इस दिशा में सोचना शुरू करे।


कुपवी में दिवाली तीन दिन बड़ी धूम धाम से मनाई जाती है। वैसे तो सभी जानते है की हमारे देश में दिवाली की तैयारियो में लोग दशेहरे के बाद से ही लग जाते है।लेकिन जिस दिन का सभी को बेसब्री से इंतज़ार रहता है वह है कार्तिक मॉस की अमावस। इसी दिन से शुरू होता है कुपवी में तीन दिन मनाई जाने वाली दिवाली का सिलसिला। अमावस की शाम क्षेत्र में लगभग हर गाँव में दिवाली मनाई जाती है जिसे पहाड़ी बोली में "वांस" भी कहते है। इस दिन गाँव के सभी लोग शाम का भोजन करने के बाद एक जगह पर इकट्ठे हो जाते है और रात भर ऐतिहासिक और पौराणिक गाथाओ पर आधारित गीतों पर नृत्य करते है। बीच में मनोरंजन के लिए लघु नाटको का आयोजन भी होता है। और जब अमावस की रात अपने आखरी  पहर पर पहुचती है और अगले दिन का पहला पहर शुरू होने लगता तो सभी पुरुष इक्कठे होकर लकड़ी से बनी मशाले अपने हाथो में लेकर ढोल नगाड़ो की धुनों के साथ पौराणिक और ऐतिहासिक गानों को गाते हुए नृत्य स्थल से लेकर अपने गाँव ने बने कुल देवता के मंदिर तक जाते है। और वहाँ थोड़ी पूजा अर्चना की विधि पूरी करके वापिस नृत्य स्थल तक आते है और थोडा सा नृत्य करके ततपश्चात सभी लोग अपने अपने घरो की ओर प्रस्थान करते है। 

इसके अगले दिन मनाई जाने वाली दिवाली को "पोडोइ" कहते है। इस दिन आसपास के कुछ गाँव कट्ठे मिलकर एक जगह पर दिवाली मनाते है। और कई जगह इस दिन रात को भी पहले दिन की तरह ही दिवाली मनाई जाती है।"पोडोइ" के दिन की शुरुवात में गाँव की लडकिया और महिलाये नृत्य स्थान पर इक्कठा होकर सदियो से गाये जाने वाले पहाड़ी गीत जिसे "भिउंरि" कहते है, वह गाती है। इसमें हर घर के मुखिया के नाम गाते हुए लिए जाते है और इसके इलावा गाँव में कोई मेहमान यदि आया हो तो उसका नाम भी लिया जाता है। इसे आप ऐसे भी समझ सकते है की गांव में अपनों से मिलने आये मेहमानो का जिक्र गाते हुए किया जाता है। जिस किसी का नाम लिया जाये वह व्यक्ति "मूड़ा" और "अखरोट" लेजाकार और अपनी इच्छा अनुसार कुछ रूपए इन लड़कियो को देते है। फिर अंत में सभी लडकिया इसका बराबर हिस्सा करके आपस में बाँट देती है। इसके पश्चात लोग "पोडोइ" मनाने अपनी इच्छा अनुसार आसपास के गाँव चले जाते है। जिस गाँव में "पोडोइ" मनाई जाती है वहाँ के लोग आसपास के गाँव से आये लोगो का ढोल नगाड़े बजाकर स्वागत करते है और फिर सभी लोग मिलकर दिन भर नृत्य करते है और एक दूसरे से मिलते है। इस बीच मनोरंजन के लिए लघु नाटको का आयोजन भी किया जाता है। और फिर कुछ गिने चुने गाँव में "पोडोइ" की रात को भी धूम धाम से दिवाली मनाई जाती है। इसके पश्चात अब आखरी दिन यानी तीसरे दिन जिसे "जोन्दोइ" के नाम से मनाते है इस दिन गिने चुने गाँव में ही आयोजन होता है, मतलब ये जी जितना कम जगहों पर आयोजन उतना अधिक लोगो का जमावड़ा। और इस प्रकार इस क्षेत्र के लोग खुशियो का ये त्यौहार तीन दिन लगातार झूमते हुए मनाते है।




गहन चिंता का विषय है कि आज का युवा वर्ग पश्चिमी सभ्यता का गुलाम बनता जा रहा है और अपनी संस्कृति से दूर होता जा रहा है। जिस वजह से पहाड़ो में मनाये जाने वाले इस प्रकार के त्यौहार अपनी पहचान खोते जा रहे है। साथ ही युवाओ में बढ़ते नशे का प्रचलन भी इन त्योहारो से युवा पीढ़ी को दूर ले जा रहा है।आज की युवा पीढ़ी ये समझती है कि त्यौहार केवल मजे करने के लिए होते है। हाँ ये बात सही भी है लेकिन मजे करने का मतलब नशा करके बेसुध पड़े होना कदापि नहीं है।  इसके इलावा पढ़ाई व् रोजगार के लिए लोगो का ग्रामीण क्षेत्रो से पलायन भी इस प्रकार के आयोजनों पर असर डाल रहा है।

इसलिए हम क्षेत्र के सभी लोगो से ये विन्नति करते है कि नशे से दूर रहे और अपनी सांस्कृतिक धरोहर को न सिर्फ संरक्षित करने बल्कि इसे बढ़ावा देने के लिए भी आगे आये। 


दिवाली के इलावा भी अनेक सांस्कृतिक महत्व वाले त्यौहार  जैसे:- जन्माष्टमी, शिवरात्रि, चिडेउल्टी के अलावा बिशु इत्यादि भी क्षेत्र में बड़े धूम धाम से मनाये जाते है। यदि इन सभी आयोजनों के लिए एक रूपरेखा ऐसी तैयार की जाये  जिस से क्षेत्र में सांस्कृतिक पर्यटन को बल मिले तो क्षेत्र के सेकड़ो, हजारो लोगो को रोजगार के द्वार खुल सकते है। और क्षेत्र में विकास को गति देने में भी इस से मदद प्राप्त होगी।

अतः आप सभी से ये निवेदन रहेगा की इस दिशा में समय रहते सोचे और समय रहते जरुरी कदम इस दिशा में बढ़ाये।

 

अंत में समस्त शार्प परिवार की ओर से आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये। खुशियो और रौशनी के इस त्यौहार में हम प्रभु श्रीराम से आपके जीवन को खुशियो से भरने की मंगल कामना करते है।


नोट:- यह लेख हमारी सांस्कृतिक विरासात को उजागर करने व् बढ़ावा देने के मकसद से लिखा गया है। यदि आपको इस लेख में कुछ अनुचित या गलत जानकारी लगे तो कमेंट में जरूर बताये। और अपने विचार और सुझाव भी कमेंट में जरूर साँझा करे। साथ ही आपसे ये आग्रह भी करते है कि कोरोना महामारी के दौर में अपने व् अपने परिवार की सुरक्षा का उचित ध्यान रखे।

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