
डॉ. यशवंत सिंह परमार का जन्म चार अगस्त, 1906 को सिरमौर रियासत के ग्राम चन्हालग में हुआ था। उन्होंने एम.ए, एल.एल.बी. तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर सिरमौर रियासत में जिला एवं सत्र न्यायाधीश तथा फिर दिल्ली में अनेक महत्वपूर्ण शासकीय पदों पर काम किया। 1946 मे वह संविधान सभा के सदस्य नियुक्त किये गए। 1947 में देश स्वतन्त्र होने के बाद 15 अप्रैल, 1948 को हिमाचल प्रदेश का एक केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में गठन हुआ। उस समय हिमाचल को एक दूरदर्शी तथा राजनीतिक सूझबूझ वाले नेता व कुशल प्रशासक की आवश्यकता थी। स्वतन्त्रता सेनानी वैद्य सूरत सिंह ने डा. यशवन्त सिंह परमार की योग्यता को पहचान कर पच्छाद क्षेत्र से उन्हें विधानसभा का चुनाव लड़ाया। हालाँकि जनता की इच्छा थी कि वैद्य जी स्वयं चुनाव लड़ें। चुनाव जीतने के बाद डॉ. परमार हिमाचल के प्रथम मुख्यमन्त्री बने और 1952 से 1956 तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे।1956 में हिमाचल को केंद्र शाषित प्रदेश बनाया गया जिसके बाद हिमाचल उप राज्यपाल के अधीन आ गया। डॉ. परमार 1963 में फिर से प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और फिर 1977 तक वह बतोर मुख्यमंत्री अपनी सेवाएं प्रदेश को देते रहे। प्रदेश में डॉ. परमार इकलौते ऐसे मुख्यमंत्री रहे है जिन्हें एक से अधिक अवधि के लिए लगातार मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त हो।
डॉ. परमार एक ऐसी शख्सियत थे जिनके बारे में बहुत कुछ लिखा, कहाँ और सुना गया। वह एक दूरदर्शी राजनेता के साथ साथ एक कुशल प्रशासक भी थे। मन, वचन, व् कर्मो से वह ठेठ पहाड़ी थे और पहाड़ी संस्कृति उनके रोम रोम में वास करती थी। डॉ. परमार ने पहाड़ी भेषभूषा को उस समय अपनाया था जब पहाड़ी लोगो का नगरो में जाने पर अक्सर मजाक उड़ाया जाता था और शोषण किया जाता था।देखने को मिलता है कि पहाड़ी लोग पहाड़ी पहनावे को लेकर केवल अपने गाँव घर तक सीमित है।लेकिन डॉ. परमार ने हमेशा से पहाड़ी भेषभूषा को बढ़ावा दिया और वह सदा लंबी कमीज, चूड़ीदार पजामा, और लोइया आदि पहाड़ी वस्त्रो को पहनते थे।

क्या आप आज ये कल्पना कर सकते है कि कोई नेता बिना कोई पैसा खर्च किये चुनाव लड़े?ऐसा कहाँ जाता है कि डॉ. परमार को जब 1967 में चुनाव लड़ने के लिए पार्टी की तरफ से 4000 रु दिए गए तो उन्होंने लेने से इनकार कर दिया और वह 4000 रु अन्य उम्मीदवारों के चुनाव प्रचार में खर्च करने को दे दिए। डॉ. परमार जब कभी भी प्रदेश में कही जाते तो वह सरकारी विश्राम गृह का इस्तेमाल नहीं करते थे और अपने सहयोगियों को भी नहीं करने देते थे। उनका मानना था कि जब भी मौका मिले उन्हें लोगो के बीच रहना चाहिए। और इसके इलावा वह न तो किसी उद्योगपति और न ही किसी कारोबारी के यहाँ ठहरते और अपने सहयोगियों से भी ऐसी ही अपेक्षा रखते थे।
डॉ.परमार हमेशा सड़को के निर्माण की पैरवी करते थे उनका मानना था कि सड़के किसी भी प्रदेश या क्षेत्र के लिए जीवन दायिनी है। कहते है कि वह जब भी ग्रामीण क्षेत्रो में भ्रमण के लिए निकलते तो अपने साथ टाइपराइटर और अधिकारिओ को साथ लेकर जाते थे ताकी ग्रामीणों की समस्याओ को दूर करने के लिए आदेश वही जारी कर सके।
वह जब भी ग्रामीण क्षेत्रो में जाते तो लोग उनके साथ साथ एक गाँव से दूसरे गाँव यु ही चल देते थे।उनके स्वागत में ग्रामीण लोग जब लोकनृत्य करतेे, तो वे भी उसमें शामिल हो जाते थे। लोकपर्व, मेले व तीज-त्योहारों आदि में वे हमेशा अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते थे। ग्रामीण क्षेत्र में वे असकली, सिड़कु, पटण्डे, लुश्के जैसे स्थानीय पकवानों की माँग करते और ग्रामीणों के बीच में बैठकर पत्तल पर ही भोजन करते थे।
डा. परमार अपनी बोलचाल में अक्सर पहाड़ी बोली का ही प्रयोग करते थे। उनका ये मानना था कि यदि अपनी बात सब तक पहुँचानी है, तो स्थानीय बोली से अच्छा कोई तरीका नहीं है।
कहाँ जाता है कि 1977 में उनके इस्तीफे के पीछे का कारण संजय गांधी भी माने जाते है। ऐसा भी एक किस्सा है कि एक मर्तबा संजय गांधी कसौली आये हुए थे। वहाँ उन्होंने अपने जूते सही ढंग से नहीं रखे और उनके जूते खो गए।जिसके बाद उन्होंने काफी हंगामा किया जिसपर उस समय के मुख्यमंत्री डॉ. परमार ने उनके मुह पर ये कह दिया था कि उन्हें अपने जूते संभाल के रखने चाहिए थे।
डॉ.परमार के इस्तीफे को लेकर एक और किस्सा ये भी है कि जब उन्हें इस्तीफे से पूर्व दिल्ली ये बात करने के लिए बुलाया गया और जब वहाँ पहुँच कर डॉ. परमार को ये बात पता चली की उन्हें दिल्ली उनसे इस्तीफ़ा मांगने के लिए बुलाया गया है तो इसपर वह हँसकर बोले कि इतनी सी बात के लिए दिल्ली बुलाने की क्या जरुरत थी फ़ोन पर ही कह दिया होता।
अपना त्याग पत्र देने के बाद डॉ.परमार ने शिमला बसस्टैंड से शिमला से नाहन जाने वाली HRTC बस पकड़ी और उसमे बैठकर अपने गाँव चले गए।सवारियो से भरी इस बस की सीट नंबर 2 पर बैठे एक बुजुर्ग शख्स ने अपना किराया खुद से कटवाया और जब कंडक्टर ने उन्हें देखा तो ये देख कर वह भी आवाक रह गया कि भला कैसे एक शख्स जिसे हिमाचल निर्माता के नाम से जाना जाता हो, जो लगभग 2 दशको तक प्रदेश का मुख्यमंत्री रहा हो आज वह अपने पद से इस्तीफ़ा देने के बाद कैसे सादगी के साथ आम लोगो के बीच सफ़र कर रहा है।
डॉ.परमार के समय के कुछ इंजीनियर आज भी याद करते है कि कैसे डॉ. परमार देश के बड़े बड़े संस्थानों को पत्र लिखकर बेहतर इंजीनियरो को सरकारी नोकरी के लिए हिमाचल में भेजने के लिए कहते थे।
वे शख्स डॉ. परमार ही थे जिनके प्रयासों से हिमाचल को एक अलग प्रदेश का दर्जा मिला। और उन्ही के प्रयासों से प्रदेश में धारा 118 भी मिली जिसके चलते बाहरी राज्य के लोग हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकते।
सादगी व् परिश्रम की मूरत डॉ. परमार ने प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए विकासात्मक कार्य के लिए अन्य जिलो से भेदभाव तो दूर बल्कि अन्य जिलो को अपने गृह जिला सिरमौर से पहले तेहरीज दी।ऐसे सरल, सौम्य, और मिलनसार व्यक्तित्व का 2 मई, 1981 को देहांत हो गया। और कहाँ जाता है कि जब उनका देहांत हुआ तो उनके खाते में उस समय मात्र 563 रूपए 30 पैसे थे।
ऐसे महान पुरुष को शत शत नमन है। राजनीती में ऐसे व्यक्तित्व की आज न सिर्फ प्रदेश में बल्कि देश में भी सख्त जरुरत है।
।।जय हिन्द।।
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